लेखक वरिष्ठ पत्रकार अमर नाथ झा
बिहार की ’सुपर सवर्ण’ पिछड़ी जातियों के तमाम प्रवक्ता,पत्रकार और समाज विज्ञानी आये दिन लगभग हर मंच पर दावा करते हैं कि यदि लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री नहीं होते तो पिछड़ों,अति पिछड़ों और दलितों को बोलने की आजादी नहीं मिलती।उन्हें आवाज लालूजी ने ही दी। यानी वे एक सिरे से वे बाबू जगजीवन राम, जननायक कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी, सूरज नारायण सिंह, भोला पासवान शास्त्री, रामलखन सिंह यादव, दरोगा प्रसाद राय, शहीद जगदेव, रामसुंदर दास, रामविलास पासवान और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं चंद्रशेखर सिंह, भोगेन्द्र झा आदि की उपलब्धियों को नकार देते हैं। यह सामाजिक इतिहास के साथ भयंकर नाइंसाफी भी है और इन विभूतियों के सामाजिक योगदान का अपमान भी। ये विभूतियां लालू प्रसाद यादव के राजनेता क्या छात्रनेता बनने से पहले ही बिहार के लोगों की आवाज बन चुके थे।

बता दें कि बाबू जगजीवन राम स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात केंद्र की विभिन्न सरकारों में न सिर्फ कैबिनेट मंत्री रहे बल्कि 1967 के कांग्रेस विभाजन के बाद पार्टी के अध्यक्ष भी बने। बाद में उन्हीं के नेतत्व में पार्टी लोकसभा जीती और केंद्र में कांग्रेस की बहुमत की सरकार बनी। यदि तत्कालीन राष्ट्रपति एन संजीव रेड्डी ने लोकसभा भंग करने का आदेश नहीं देकर उन्हें बहुमत के आधार पर मौका दिया होता तो वह चौधरी चरण सिंह के बाद देश के प्रधानमंत्री बन गये होते। भोला पासवान शास्त्री दलित समुदाय से आते थे। वे बिहार के तीन बार मुख्यमंत्री हुए। केंद्र सरकार में मंत्री भी बने। आज भी उनकी ईमानदारी की मिसाल दी जाती है। रामलखन सिंह यादव बिहार के कद्दावर नेता थे। वे सिर्फ पिछड़ों के ही नहीं सभी गरीब वर्ग की आवाज थे। कई बार बिहार में कैबिनेट मंत्री बने। दरोगा प्रसाद राय भी बिहार के मुख्यमंत्री हुए। शहीद जगदेव प्रसाद पिछड़ों में बिहार के लेनिन कहे जाते थे। आंदोलन के दौरान वे शहीद हुए थे। रामसुंदर दास मुख्यमंत्री भी बने और सांसद भी हुए। दिलचस्प तथ्य यह है कि शुरूआती दौर में दलित वर्ग से आने के बावजूद वे सामान्य सीट से ही चुनाव लड़ते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए सोनपुर विधानसभा सीट से लालू प्रसाद यादव से हारने के बाद वे आरक्षित सीट से विधानसभा एवं लोकसभा के लिये चुने गये। रामविलास पासवान जेपी आंदोलन से पूर्व ही विधानसभा के सदस्य बन चुके थे। उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता मिश्री सदा को पराजित किया था।
जननायक कर्पूरी ठाकुर बिहार के दो बार मुख्यमंत्री हुए। जहां तक मुझे याद है,कर्पूरी ठाकुर ने एक बार बिहार के लोगों को जिलावार सूची जारी कर बताया था कि किस जिले में कौन जाति सामंत है। सामंतों में पिछड़ी जातियां भी शामिल थीं। जब उन्होंने मुख्यमंत्री रहते बिहार में पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण लागू किया था तब उन्होंने ओबीसी कोटा को विभाजित कर दिया था। उनके मन में यह धारणा रही होगी कि सिर्फ शिक्षा की कमी के कारण कोई पिछड़ा नहीं हो सकता। उन्हें देश की कई कथित पिछड़ी जातियों की हैसियत का अंदाजा था। ये जातियां विभिन्न राज्यों में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से काफी मजबूत थीं। उनकी नजर में आर्थिक एवं सामाजिक रूप से समृद्ध जातियां-यादव, कुर्मी, जाट, बोकलिंगा, गुर्जर इत्यादि शामिल रही होंगी। इनकी तुलना जजमानी व्यवस्था से जुड़ीं अति पिछड़ी जातियों से नहीं की जा सकती। इसलिये उन्होंने पिछड़ा वर्ग को पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्ग में विभाजित किया था। उन्होंने कुल आरक्षण में 12 प्रतिशत अति पिछड़ों को और आठ प्रतिशत पिछड़ों को आरक्षण दिया था। तीन-तीन प्रतिशत महिलाओं एवं गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दिया था। फिर क्या हुआ! कर्पूरी फार्मूला को सत्ता में आते ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समाप्त कर दिया। इसका नतीजा निकला कि अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल वर्ग को उनके हिस्से का आरक्षण का फायदा नहीं मिला। अब इन जातियों की हकमारी किसने की इसका सर्वेक्षण होना चाहिए। जनता के सामने यह बात सामने आनी चाहिए कि आरक्षण की मलाई किन पिछड़ी जातियों ने खाई।
लालू प्रसाद यादव परिवार एवं नीतीश कुमार के सत्ता में रहते करीब 35 वर्ष हो गये हैं। क्या अति पिछड़ों को उनके कोटे के आरक्षण का लाभ मिला। यही सवाल तो बिहार में अति पिछड़े वर्ग के लोग उठा रहे हैं। इसका जवाब दिन रात गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने वाले कथित पिछ्डे वर्ग के पत्रकारों और प्रवक्ताओं के पास क्यों नहीं है! बिहार में तो तीन दशकों से खांटी सामाजिक न्याय की सरकार है। कांग्रेस एवं वामपंथी पार्टियों का भी उन्हें समर्थन प्राप्त है, ताकि सामाजिक न्याय के रास्ते में कोई बाधा न आ जाये। यदि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार के आंकड़ों पर गौर करें तो बिहार सबसे अंतिम पायदान पर है। पूरे देश में सबसे अधिक पलायन बिहार से होता है। तीन दशकों में लालू प्रसाद यादव एवं नीतीश कुमार बिहार के लोगों को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दिला पाये तो इसके लिये जिम्मेदार कौन है!

सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष में वामपंथी पार्टियां भी पीछे नहीं रही। बिहार विधानसभा में पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक के रूप में कामरेड चंद्रशेखर सिंह ने दस्तक दी थी। आप सोच सकते हैं, उनके पिता रामचरित्र सिंह प्रदेश में कांग्रेस की श्रीकृष्ण सिंह सरकार में मंत्री थे और वे लाल झंडा लिये गरीबों के लिये संघर्ष कर रहे थे। कांग्रेस शासन में कितनी बार वे कम्युनिस्ट आंदोलन में जेल गये, यह एक इतिहास है। कामरेड भोगेन्द्र झा मधुबनी जिला के कम्युनिस्ट आंदोलन के महानायक थे। अंग्रेजी हुकूमत में ब्रिटिश पुलिस की और आजादी के बाद कांग्रेस शासन काल में कितनी लाठियां खायीं, आज के नेताओं के लिये एक बेहतर उदाहरण हो सकता है। बेनीपट्टी ब्लाक में एक महंत के खिलाफ भूमि संघर्ष में यदि पलटू यादव ने अपनी शहादत देकर उनकी जान नहीं बचायी होती तो उनकी हत्या हो गयी होती। मधुबनी जिले में अधिकांश संघर्ष ब्राह्मणों एवं महंतों के खिलाफ था और उसका नेतृत्व कर रहे थे कामरेड भोगेन्द्र झा। इसी तरह बिहार के हर जिले में संघर्ष चल रहा था। वह सामंतों और महंतों के खिलाफ था। सामंतों में पिछड़े वर्ग के लोग भी शामिल थे। आज भी माले समेत तमाम वामपंथी पार्टियां शोषक वर्ग के खिलाफ संघर्षरत हैं। हालांकि, वामपंथी पार्टियां कथित ‘सामाजिक न्याय‘ के भंवर में इस कदर फंस चुकी हैं कि उनकी उपलब्धियां भी उनके खाते में दर्ज नहीं हो पातीं।
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